युद्ध्भूमि के मध्य पूरी तरीके से जीतने की तैयारी के साथ आए वहाँ के सबसे बड़े योद्धा अर्जुन अपने मोह से उत्पन्न विषाद के कारण एकदम लाचार और बेचारा बनकर भाग जाने की बात कर रहे हैं। अपने मनःस्थिति के ऐसे विषम परिस्थिति में भी अर्जुन का अहोभाग्य कि वह प्रभु के शरणागत हो जाते हैं। “पंडिता: न अनुशोचन्ति” अर्थात् बुद्धिमान कभी किसी से परेशान नहीं होते, ऐसे वक्तव्य से शुरुआत करके श्रीकृष्ण आत्मा की बात बताते हैं और कहते हैं कि मनुष्य का असली स्वरूप आत्मा ही है। तत्पश्चात् धार्मिक जीवन की विवेचना सुनाते सुनाते शायद उन्हें लगा हो कि अर्जुन अब अपने मोहवश कही तर्कों को सही तरीके से समझने को तैयार हैं।

उनको मारने पर उतारू कौरवों को नहीं मारने के लिए जिस अर्जुन ने अभी पच्चीसियों तर्क दिये कि अपने सगे सम्बन्धियों को मारना पाप है, इन सबको मार कर जो राज्य जीतेंगे वो राज्य भला राज करने लायक कैसे होगा? परिवार बर्बाद हो जाएगा, समाज बर्बाद हो जाएगा, आदि आदि। लेकिन भगवान अब इन सारे तर्कों को बिल्कुल दूसरी तरफ ले जाकर बोल रहे हैं कि अगर इनको नहीं मारा तो पाप है, उनको मारने से तो तुम्हें पुण्य मिलेगा। अर्जुन के थोड़ी ही देर पहले अपने मोहित बुद्धि से जो जो तर्क दिये थे, भगवान ने उन्हें एक एक करके सही दृष्टि से कैसे समझना है उसको समझाते हैं। 

श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोग तुम पर हँसेंगे कि देखो ये भाग गया और ऐसा होना तुम्हारे लिए मृत्यु से भी ज्यादा घातक है, क्योंकि तुम समाज में एक अग्रणी और नायक रहे हो। आगे चलकर प्रभु समझाते हैं कि समाज में जो अग्रणी है उसकी ये जिम्मेदारी हो जाती है कि वो हमेशा अपने व्यवहार को उच्चतम स्तर पर रखे क्यूँकि समाज उनका अनुशरण करता ही है। उस हिसाब से अर्जुन का जो एक कद बना हुआ है, वो जो भी करेंगे आगे चल कर समाज वैसा ही बनेगा। अगर अर्जुन अपने धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं तो ये उनका ऐसा कर्तव्यविमूढ़ होना, उनका स्तब्ध होकर फैसला नहीं ले पाना या गलत फैसला लेना, ये उदाहरण बन जाएगा समाज के लिए, अपने अपने धर्मपद से दूर होने का। और जब सब अपने अपने धर्म का पालन नहीं करेंगे तो समाज का भ्रष्ट होना तो निश्चित ही है। अर्जुन जैसे समाज के नायक के लिए जिसका आज इतना अच्छा नाम है, प्रभु समझाते हैं यह तुम्हारे लिए मृत्यु से भी बुरा साबित होगा। 

आगे वो बोलते हैं कि जिन महारथियों के लिए तुम वो सारे तर्क दे रहे थे वो सारे तुम्हें डरपोक बोलकर तुम पर हँसेंगे। और ये जो तुम्हारे दुश्मन हैं, वो तुम्हारे बारे में और भी भद्दी भद्दी बातें कहेंगे, इससे बुरी बात क्या हो सकती है? तो इस बात को समझो कि अगर तुम मारे गए इस युद्ध में तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। क्यों? क्योंकि तुम अपने कर्तव्य पथ पर अपने क्षत्रिय धर्म का पालन कर रहे हो और तुम जीत गए तो तुम्हें राज्य मिल जाएगा। तो उठो और पूरे दृढ़ मन से लड़ाई करो। ये बातें हमारे लिए भी बहुत आवश्यक हैं कि हम देश, काल और पात्र के हिसाब से अपने धर्म को सही तरीके से समझें और उसके अनुरूप जीवन जिएँ। 

भगवान आगे उन्हें एक बहूत अच्छी बात समझा रहे हैं कि सही कर्म जो है तुम्हारा, वो युद्ध करने का है और जो मानसिक स्थिति है, मनोभाव है उसके लिए, वो उस योगी की तरह है जिसे सुख-दुख, लाभ-हानि, जय- पराजय से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसमें भगवान ने, एक तरफ नीतिशास्त्र(ethics) के दृष्टिकोण से और दूसरी तरफ हमारा असली स्वरूप आत्मा के होने के ज्ञान की दृष्टिकोण से – इन दोनों के point of view से जो निष्कर्ष है, उसको एक साथ बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया गया है। 

अतः आत्मा का ज्ञान एक आवश्यक और शायद सबसे त्वरित गति से अपने धर्म को समझने का मार्ग है। यह जानने के लिए कि हम मोहवश अपने निहित कर्मों का परित्याग तो नहीं कर रहे, इसके लिए आत्मज्ञान से सटीक कोई उपाय नहीं। भगवान यह बात अर्जुन को साफ साफ समझा देना चाहते हैं कि जीवन के प्रति हमारा सही मनोभाव (right attitude) तभी विकसित होगा जब हम आत्मा के सिद्धांत को अच्छे से समझें। क्योंकि जब तक से हम अपने स्थायीत्व (permanent nature) को नहीं समझ पाएंगे, उसे पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाएंगे, तब तक ‘सुख दुख में समान रहो’ केवल कथनी ही रह जाएगी। 

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