अर्जुन अपने सारे दलीलों को सामने रखता है और उसके बाद भगवान बोलते हैं कि, “पण्डिताः न अनुशोचन्ति”। बुद्धिमान किसी भी चीज की चिंता नहीं करते हैं। यह एक ऐसा मूल मंत्र है, एक ऐसी कसौटी है, जो जीवन के सारे समस्याओं का समाधान तुरंत समझा देता है। अगर मैं किसी चीज की चिंता कर रहा हूँ तो इसका मतलब है कि मैं बुद्धि से काम नहीं ले रहा हूँ, बुद्धिमान की तरह मेरी सोच नहीं है अभी, उनकी तरह मेरे शब्द नहीं हैं अभी, उनकी तरह व्यवहार नहीं कर रहा मैं अभी।

इसका स्पष्ट कारण भी बताते हैं भगवान कि जो जीवित बच जायेंगे उनकी चिंता नहीं करनी चाहिए और जो युद्ध में मर  जाएँगे उनकी भी चिंता नहीं करनी चाहिए।

 

वह अर्जुन को आगे बताते हैं कि ऐसा कभी था ही नहीं कि  तुम नहीं थे या मैं नहीं था या ये सारे राजा-महाराजा लोग नहीं थे। ना ही ऐसा कभी होगा की हम में से कोई आगे भी कभी खत्म हो जाएगा।

इस ग्रंथ का, हमारे पूरे सनातन धर्म की विचारधारा का, हम सबके जीवन के सोचने समझने के तरीके की धुरी है यह सोच। इस एक सत्य से अर्जुन के सामने जो इतनी बड़ी समस्या पैदा हुई है वो चुटकी में हल  हो जा रही है। उसका ( और हमारा) राग, मोह, शोक – ये सब पैदा ही विभाजन की मानसिकता के चलते हुए हैं, और प्रभु एक ऐसी बात कह रहे हैं जहाँ कोई भेद है ही नहीं। एक ऐसा सत्य जो सबका है – मेरा, तुम्हारा, यहाँ आए ये सब राजा-महाराजा और बाकी सब लोग पूरी दुनिया में – ऐसा कभी था ही नहीं ये कि ये नहीं थे और ऐसा कभी होगा की ये होंगे नहीं आगे।

प्रॉपर्टी वाले यह बताते हैं कि उनके धंधे में 3 सबसे जरूरी चीजें हैं –  1) Location, 2) Location, 3) Location. यानी किस स्थान पर वो घर या दुकान है ये सबसे आवश्यक जानकारी है। शायद ठीक वैसे ही भगवान जो बात कर रहे हैं उसे सही तरीके से समझने के लिए हमें अपनी location यानी हम अपने को किस जगह से पहचान रहे हैं वो सबसे जरूरी है। अर्जुन जिनके मरने मारने की बातें कर रहे हैं – यह शरीर के स्तर पर अपने और सबको पहचानने के कारण है। फिर जब वो कह रहे हैं कि लड़ाई नहीं करनी चाहिए – तब वह मन के स्तर पर पहचान रहे हैं। और भगवान जिसकी बात कर रहे हैं वो आत्मा के स्तर पर अपने को पहचानने की बात कर रहे हैं। जब हम अपने को आत्मा की तरह जानते हैं तो भगवान हमें सही जानने वाला अर्थात्  पण्डित  कह रहे हैं और ऐसी स्थिति में रहने वाला किसी भी चिज से परेशान नहीं होता, चिंतित नहीं होता। 

यह जानना और समझना बहूत जरूरी है कि हमारा अस्तित्व तीन स्तरों का है – शरीर, मन और आत्मा। हम में से अधिकांश शरीर के स्तर पर अर्थात् मैं और मेरा के ही भाव में पूरा जीवन निकाल देते हैं। कुछ अपने आप को शरीर मात्र से आगे मन ( मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के साथ जानते और पहचानते हैं और समाज के बुद्धिजीवी कहलाते हैं। विरले ही अपने असली स्वरूप, आत्मा के स्तर पर अपने को जानते हैं और जीते हैं। उनकी पहचान होते है “मैं हूँ।”, बस इतना ही, पूर्ण विराम के साथ। उन्हें किसी नाम, पद, रिश्ते, वस्तु आदि की जरूरत नहीं अपनी पहचान के लिए। 

अब अपने ही अनुभव को लें, बचपन में जब 5 साल के थे उस समय अपने को कैसे जानते थे, अभी याद करने पर कुछ तो ऐसा है जो बिलकुल वैसा ही फ्रेश, तरोताजा है। जब 10 साल के थे तब भी वह अपने आपको जानना पहचानना वैसा ही जान पड़ता था और आज याद करने पर भी वैसा ही है। जब 15, 20, 25,45,75, 105… उम्र हो जाए तब भी अपने आप को उस अंतःकरण में सदैव हम एक ही रूप में जानते पहचानते हैं। शरीर को बदलते देखा है हमने, रोज भी बदल रहा है – बाल, नाखुन बढ़ रहे हैं, और लम्बाई बढ़ी, मोटापा बढ़ता घटता रहता है। मन के विचार तो हर पल बदलते देखें हैं हमनें। लेकिन एक वो तत्व है जहाँ से हम ये सब देख रहे हैं और वो स्वयं वैसे का वैसा ही है फ्रेश, तरोताजा। भगवान इसी तत्व की बात कर रहे हैं, यह पहले भी था और आगे भी रहेगा। दूसरी बात समझने की यह है कि यह तत्व मेरे लिए, आपके लिए, अर्जुन के लिए, श्रीकृष्ण के लिए, सारे राजा-महाराजाओं  के लिए, सबके लिए एक ही है। इस स्तर पर हम सब एक हैं और हमेशा से हैं और हमेशा के लिए हैं। 

अपने इस तत्व को जानना समझना और जीवन को इसके ज्ञान के साथ जीना यही सबसे कठिन माने जाने वाले ब्रह्मविद्या (ब्रह्मा नहीं, ब्रह्म) का मूल मंत्र है। अर्जुन के विषाद को देखते हुए और उसकी शरणागति को स्वीकार करते हुए प्रभु ने सीधा यही समझाया ताकि वह अपने राग, मोह और शोक से उबर सके। अर्जुन की मनोस्थिति बहुत  खराब थी यह देखकर प्रभु ने दया दिखाई और इस परम सत्य को बहुतेरे प्रयासों से, अर्जुन के मन में उठ रहे सारे सवालों के जवाब देते हुए समझाया। इसका हम सबको बड़ा फायदा हो गया क्यूँकि ये संवाद हुआ तभी तो हमारे जीवन को सही तरीके से और पूरे आनंद के साथ जीने का गाइड्बुक, भगवद्गीता हमें मिल पाया। 

गूढ़ रहस्य बिलकुल आँखों के सामने छिपा हुआ हो तो कैसे समझें उसे? यही है हमारी समस्या। इंजीनियरिंग की तैयारी का वाकया  याद आ रहा है जब भौतिकी यानी physics के अध्यापक महोदय ने 12 महीने की पूरी तैयारी में से 2 महीने तो केवल न्यूटन के दूसरे नियम में लगा दिए थे। लेकिन उसकी अच्छी पकड़ से पूरा physics सरल हो गया। गूढ़ बात को पकड़ लेने पर, समझ लेने पर, अपने जीवन में उतार लेने पर, सब कुछ आसान हो जाता है। इसके लिए मेहनत लगती है अपनी बुद्धि को तैयार करने में ताकि महीन बातें समझ सके। ब्रह्मविद्या भी बहुत महीन है, बुद्धि से भी सूक्ष्म, लेकिन जहाँ तक बुद्धि इसे पकड़ सकती है वहाँ तक के लिए तो बुद्धि को तैयार कर लेते हैं ना? उसके बाद के लिए प्रभु कृपा तो है ही!

धीर: तत्र  न मुह्यति

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