कुरुक्षेत्र के बीचोबीच अर्जुन असमंजस की स्थिति में हैं, और विषाद में हैं, भगवान उनकी मदद कर रहे हैं कि आप सही बात को समझो। अपने असली स्वरूप को, आत्मस्वरूप को, समझना अत्यंत आवश्यक है और सबसे हितकारी भी। यद्यपि शायद अर्जुन अभी वह गूढ़ विषय समझ पाने की स्थिति में नहीं हैं, अतः श्रीकृष्ण स्वधर्म की बात करते हैं, यानी कि आखिर हमारा धर्म क्या है?

सामान्यतः, इसको हम 2 वर्गों में बाँट सकते हैं। एक जो है सामान्य धर्म है हमारा, कि कौन-कौन सी चीजें हैं जो हमें करनी चाहिए, जिसको हमारे शास्त्र ‘नियम’ कहते हैं। नियम क्या हैं हमारे? जैसे शौच(cleanliness), आहार(right food), स्वाध्याय(self-study) –  कि खुद को अंदर-बाहर साफ रखना चाहिए, पौष्टिक खाना खाना चाहिए, सात्विक खाना खाना चाहिए, मन से स्वाध्याय करनी चाहिए, सत्व को पता करने की कोशिश करनी चाहिए। ये सारी चीज़ें जो हैं, वो नियम के अंदर आती हैं और सभी को करनी चाहिए।

फिर बहुत सारी चीजें हैं जो कि नहीं करनी चाहिए। इनको ‘यम’ बोलते हैं — चोरी नहीं करनी चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए – ये सारी चीजें यम हैं और ये सबके लिए समान रूप से लागू हैं।

फिर आता है ‘विशेष धर्म’ – देश, काल, पात्र  के अनुसार। यह हमारे role, place and time के हिसाब से निश्चित होता है। TRP – किस समय किस रोल में किस जगह पर हैं, उस हिसाब से यह decide होता है।  इसमें हमारे पात्र अर्थात्  role की अनिश्चितता ढेरों समस्याएँ पैदा कर देती है। 

 

 अगर हम सोचें कि अर्जुन के साथ क्या हुआ कुरुक्षेत्र के मध्य में? अर्जुन यहाँ पर अपने आपको एक धर्म के पक्ष में खड़े योद्धा के बजाय, अपने पितामह के प्रपौत्र, अपने मामा का भांजा, अपने गुरु का शिष्य – इन सारे पात्रों में देख रहे हैं स्वयं को।अर्जुन का ये जो confusion है, वो इस धर्मयुद्ध की जो स्थिति है, उसके विरुद्ध है क्योंकि वो अपने धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं।

अतः हमारे व्यावहारिक जीवन में अपने सही पात्र यानी role की समझ अतिआवश्यक है। इस समझ से हमारा धर्म हमें सही सही और जल्द समझ में आ सकता है। ये जितना उलझा हुआ हमने बना रखा है उतना है नहीं है। क्योंकि हमारे अंदर वो समझ अंतर्निहित है जो आराम से बता सकता है कि हमने अपने role place को time को सही समझा है कि नहीं।

अगर विचार करने से, तर्क करने से, उदाहरण देने से, त्याग करने से, यज्ञ दान तप करने से, जंगलों मे रहने, भटकने से, यह सब कुछ करने से यह युद्ध, अर्थात् धर्म की हानि नहीं हो रही होती तो शायद इस युद्ध की आवश्यकता ही नहीं होती। वो सारे प्रयास हो चुके हैं, और अब ऐसे में एक क्षत्रिय क्या करे? उन सारे प्रयासों के बावजूद समाज की स्थिति यह है कि एक महारानी का चीरहरण हो रहा है, वह भी  भरे राजदरबार में। उस समाज में फिर एक आम स्त्री की क्या हालत होगी! जहां पर, महाराज पाण्डु के पुत्रों को कम से कम आधा राज्य मिलना चाहिए, उनको 5 गांव तक नहीं मिल रहे। इतनी खुलेआम गुंडागर्दी! तो वहाँ के एक आम आदमी के property rights का क्या हाल हो रहा होगा? तो जब समाज मे इतनी अराजकता है तो ऐसे में एक क्षत्रिय का क्या धर्म है?

तभी भगवान श्रीकृष्ण बोल रहे हैं कि  एक क्षत्रिय के लिए धर्म के लिए युद्ध करने से अच्छा क्या हो सकता है अब? सारे प्रयास, पूजा, तपस्या जब विफल हो चुके हैं तो अर्जुन अब यह जिम्मेदारी तुम्हारे कंधे पर है।और क्या तुम इसके लिए ही इतने वर्षों से तैयारी नहीं कर रहे हो? तो इसलिए भगवान बोलते हैं कि ये धर्म युद्ध है और इस चीज को समझो, ये तुम्हारा धर्म है, इस धर्म युद्ध में उठो और युद्ध करो।

आज के परिवेश में, आपके आस पास के सत्य, अहिंसा, करुणा आदि सदगुणों से वंचीत बन रहे व्यक्तित्वों के विरुद्ध युद्ध स्तर पर कार्य होना चाहिए कि नहीं? और आपके अलावा कौन है इसका अर्जुन?

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